छूटना

वह दुकान हमारे बचपन में किसी आश्चर्य से कम नहीं थी। उसके अंदर जाने पर एक जीना था, जो ऊपर को जाता था। ऊपर नीचे की तरह हड़बड़ी नहीं थी। जब हम बैठते इत्मीनान से बैठे होते। यह तब की बात है, जब मम्मी के पैरों का दर्द अभी दर्द बनना शुरू हुआ होगा। तब घुटनों में इस कदर सूजन भी नहीं थी। इस दर्द के भाव को हम हमेशा भूले रहते। यह लिखना हमेशा मन में होता रहता। कभी लिख नहीं पाता। अचानक हम वहाँ गुप्ता जी को देखकर प्रफुल्लित हो आते। वह कहाँ से आ गए? हमें भनक तक नहीं लगती। उन्हें देखकर हम खुशी से भर जाते। वह पहले बगल मट्ठी और नमकीन की दुकान से कुछ पाव भर गाठिया लेते और उतनी ही मट्ठी लेते। यह मेरी याद में एकदम तयशुदा नहीं है, ऐसा कब और कितनी लगतार उन सालों में हुआ होगा। कोई तकनीक नहीं है, जिससे इसे और स्पष्ट कर सकूँ। मन उस रात होती शाम में उन मेज़ों के इधर और उधर बैठे लोगों को दोबारा देखकर अपनी मेज़ पर वापस लौट आया। पापा के मना करने के बाद भी हाफ प्लेट के बजाए फूल प्लेट चाउमीन से हम दोनों भाई जूझ रहे होते और उसे खत्म कर पाने में उसमें पड़ी मिर्च, सबसे बड़ी मुसीबत की तरह वहाँ मौजूद रहती। ज़िंदगी में पहली मर्तबा हम लोगों ने मसाला डोसा इसी दुकान पर खाया होगा। कहीं और खाने की कोई संभावना ही नहीं पैदा होती। हर साल समाज से मेटाडोर श्रद्धानंद बलिदान दिवस के मौके पर लाल किला जाती और उसमें बैठकर हम भी वहाँ पहुँच जाते। चार पाँच बजे तक कार्यक्रम खत्म हो जाया करता।

हम वापस उसी गाड़ी में बैठ नहीं जाते। थोड़ा रुक जाते। अभी हम वहीं रहेंगे। शाम जल्दी ढल जाएगी। अँधेरे में लाजपत राय मार्केट की उस दुकान में मेरा मन उस कोने में लगे वॉश बेसिन पर अटक जाएगा। हाथ धोने हैं या नहीं, तय नहीं कर पाता। साबुन गल रहा है। एक अजीब तरह की महक उस ठंडे मौसम में वहीं ठहर गयी है। यह मसालों से लेकर उस तरफ़ खिड़की से आ रही महकों में मिल सा गया है। यह वही जगह है, इसके पीछे डोसे की याद कभी जा ही नहीं पायी है। तब लगता है, यही वह शुरुवाती क्षण होंगे। दृश्य बार-बार एक साथ कई छवियों को अपने अंदर गुथे हुए है। हम कभी उस घुमावदार खड़े जीने से बड़े करीने से उतर रहे हैं या कभी भीड़ की वजह से बाहर खड़े हैं। वह अंदर ऑर्डर लेने वाला व्यक्ति कह रहा है, जगह अभी खाली हो जाती है। हम कोहरा हो जाने से पहले वहाँ खड़े हैं। किस बस से वापस लौट जाएँगे अभी यह बिन्दु कहीं नहीं है।

आप देख रहे हैं, कैसे बात क्रम से आ नहीं रही है। सब ऊपर-नीचे है। मेटाडोर से लेकर डोसा, उस दुकान का बेसिन। गुप्ता जी का दिख जाना। मट्ठी की दुकान। गाठिया। इस दुकान को दीवान हाल की तरफ़ बाद के सालों में बहुत बार खोजा। कभी मिली ही नहीं। कहीं गुम गो गयी। चाँदनी चौक इस तरह मेरे अंदर अरुण के मिलने से बहुत बहुत साल पहले दाखिल हो रहा था। यह कब कितने पुराने दिनों की बात है, याद नहीं आता।

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