फाँक

जहाँ कहा था, उससे बीस तीस कदम पहले बाइक रुकी। मैं उतर गया। वह भी एक रास्ता था। कच्चा। धूल भरा। नंगे पैर चलता तो उसी में सन जाता। चप्पल थी। मोज़े पहने नहीं थे। उतार दिये थे। सूरज निकला हुआ था। उसी दिन मुझे वापस लौटना था। मन में सोच रखा था, एक बार तो इस ईंट के भट्ठे वाले रास्ते से गाँव जाऊँगा। अकेला। पैदल। कोई मेरे साथ नहीं होगा। बस चल पड़ूँगा। मन में न जाने कैसे लगने लगा, यह वह जगह बिलकुल भी नहीं है, जहाँ हम कभी आ या करते थे। सब पीछे छूटने जैसा नहीं भी रहा हो तब भी पिछले एक हफ़्ते से अजीब किस्म का शोर मुझे परेशान कर रहा था। यह कष्ट जैसा ही था। जिसने मुझे उस स्थान को घेर लिया हो जैसे।

दो पल अकेले छत पर बैठे होने पर कोई क्षण ऐसा नहीं लगा, कहीं ऐसी जगह हूँ, जो मेरे उन टूट गए तंतुओं को जोड़ने का काम कर रही हो। हर दम तरह-तरह की आवाज़ों से घिरा, जब उस रास्ते पर चल रहा था, तब उन ध्वनियों की अनुपस्थिति कुछ कुछ उस संगीत की तरह थी, जो अभी तक मुझे सुनाई नहीं दिया था। इसमें मशीनों द्वारा उपजी खटर-पटर करती मर्मांतक पीड़ादायी आवाज़ें नहीं थी। उनकी कृत्रिमता के अभाव में जो यहाँ फैला हुआ दृश्य था, वह मुझे खुद में समेट रहा था। जैसे-जैसे नयी बनी सड़क से दूर होता जा रहा था, उनमें पानी के बुलबुलों के बनने से लेकर पंछियों की चहचहाहट थी। किसी बैलगाड़ी में जुते हुए बैलों के गले में बंधे घुंगरुओं की बहुत दूर से आती आवाज़ उस परिवेश में अभी भी किसी अतिक्रमण से बची हुई थी। इससे पहले कि यह किसी अतीतजीवी का स्मरण लगे, सिर्फ़ इतना कहना चाहता हूँ, जो जिस जगह का स्वभाव है, उसका वैसे बचे रहना ही मेरे अंतस में इस भाव को पोषित कर रहा है। बाकी कुछ नहीं। यह आवाज़ें कुछ नहीं तो कई मानसिक व्यवधानों में से एक लगने लगती हैं। मेरी कोशिश हमेशा अनावश्यक शोर से बचने की रही है। यह आज से नहीं हमारे बचपने से मेरे अंदर बनता रहा है। अभी भी बन रहा है।

ख़ैर, उन बातों को फ़िर कभी कहने बैठूँगा। वह आवाज़ें, जिनसे शहर से आने वाला कोई व्यक्ति परेशान है, त्रस्त होकर कहीं भाग जाना चाहता है। चाह कर भी कहीं भाग नहीं सकता। इस कच्चे रास्ते पर आकर बस देख रहा हूँ। देख रहा हूँ, सामने केले का बाग है। साफ़, खुला, नीला आसमान है। नहर है। एक टूटही पुलिहा है। उस छोटी सी नहर पर बने उतने ही छोटे पुल के पास ठहरकर उसे देखते रहने का करने लगा। धूल में ट्रालियों, साईकिलों और पैदल चलते लोगों के कदमों से कुछ ऐसा लगता रहा, जैसे किसी ने कितनी मेहनत लगाकर उसे वहाँ उकेरा होगा। मैं कभी भी इस शहर से चलकर ऐसी किसी संरचना में फँसा नहीं रहना चाहता था, जहाँ लोगों ने आपके जीवनयापन के लिए उन ध्वनियों को सांस की तरह सहज और स्वाभाविक मान कर कई सारे समझौतों में एक इस निर्मम उपबंध को भी स्वीकार कर लिया हो। पर क्या कर सकते हैं?

मेरा मन बस ऐसी ही किसी जगह कुछ दिन उन जगहों को देखने की इच्छा से भरा रहा, जहाँ इस आखिरी दिन पहुँचा। उन पलों में लगा कहीं यही एक झोपड़ी हमारे चाचा की भी होती। उन्होंने पार साल बाबा के नाम वाली गाँव की ज़मीन न बेची होती, वह सपरिवार वहीं रह रहे होते, तब मेरे दिन वहाँ बीत रहा रोजाना कैसा होता? उन ध्वनियों को शोर तो कभी नहीं कहता, जो उसे बना रही होती। मैं इन कल्पनाओं में डूबा डूबा चला जा रहा हूँ। उन चाचा के यहाँ, जहाँ रहने की कोई संभावना नहीं है। बस थोड़ी देर मिलता। बैठता। चला आता। उन अंगूरों की बेलों को भी थोड़ा निहार लेता, जिन्हें तोड़ कर खाने की इच्छा मेरे अंदर पहले दिन से थी, पर उन्हें छूकर भी नहीं देखा। जब वहाँ आड़ू का पेड़ था, तब वक़्त कुछ और था। सब इतना उघड़ा हुआ नहीं था। सब ढका सा रहा होगा। वक़्त के साथ न वह पेड़ रहा, न हमारे अंदर वैसी इच्छाएँ। सब बिलकुल ऐसा ही था। अनकहा।

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