कागज पर लौटकर

इन दिनों मैं डायरी पर वापस आया हूँ । अच्छा लग रहा है । कागज़ पर यहाँ लिखने जैसी तकनीकी सुलभता नहीं है, फिर वहाँ लिखना अपने आप में चुनौती भरा अनुभव है । आप तरतीब से नहीं लिखते । लिखते हुए बस लिख रहे होते हैं । पता नहीं आपने यह अनुभव किया है या नहीं पर मेरे साथ यही होता है । जब मैं लिख रहा होता हूँ तो वह शब्द अंदर दोहरा रहा होता हूँ । उसे चुपचाप बोल रहा होता हूँ । इन शब्दों को सुनने में जो धैर्य है, वह यहीं महसूस किया जा सकता है । डायरी पर एक छूट है । यहाँ भी एक छूट है । दोनों दो तरह की छूटें हैं । एक में मन को थोड़ा अवकाश मिलता है । यहाँ हमें स्याही न भरने की आज़ादी है । वहाँ और भी कई बन्दिशें हैं लेकिन खयाल को कहने में जितनी दूर धागे जा सकते हैं, वह जाते हैं । यहाँ भाषा में कृत्रिमता तो नहीं पर एक तरह की दूरी का खयाल रख़ता हूँ । जो कह रहा हूँ उसके क्या-क्या मायने जा सकते हैं ? जब तक मेरे मन में है, वह किसी भी तरह रहे पर जब उसे बाहर आना है, एक तरह की सतर्कता बगल में बैठ जाती है । इसे सचेत हो जाना नहीं कह सकता क्योंकि वह ऐसा भाव नहीं है । फ़िर पता नहीं जो मैं यह सब कह रहा हूँ, उसको सही समझ भी पाया हूँ ? या वह इसी तरह मुझे दिख रहा है ?

कागज पर लिखी हुई डायरी जब-जब छूट जाती है, उस दरमियान सबसे पहला काम करता हूँ कि किसी तरह उस पर लौट सकूँ । जिन दिनों में वहाँ नहीं था, उसका कुछ हिस्सा तो वहाँ भी दर्ज़ करते हुए चलना चाहिए । यही सोच कर तीन तारीख से लेकर आज सुबह तक सत्रह पन्ने लिख चुका हूँ । बहुत सारी बातें अतीत से लौटकर वहाँ आई हैं । अगर कोई मुझे वहाँ कभी लिखता हुआ पकड़ पाये, तब वह जान पाएगा, इन दोनों तरहों में किस तरह की दूरी की बात करता रहा हूँ । यह दूरी एक माध्यम से अपनी निकटता को न भी कहे, पर वहाँ ऐसा लगता है ।

इन ढंग से न दिखने वाली धुँधली बातों को लिखना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि इनके बीच हम बन रहे हैं । हमारे बनने के नक्शों में एक दुनिया का सपना भी होगा । वह दुनिया जो किसी ने देखी नहीं है । मैं भी उसे सिर्फ कल्पना के सहारे खड़ा किया है । कुछ ऐसी निर्माण बातें कहीं हैं, जो सिर्फ वहीं की जा सकती हैं । एक तरह का एकांत सब चाहते हैं । लिखने के लिए अभी यह कागज है । हो सकता है, आगे कोई और साधन आ जाए, जिस पर लिखा जा सकता हो । इस इलेक्ट्रॉनिक कागज से भी अलग । इसे छूने में वैसे भाव नहीं आते, जो वहाँ घेरे रहते हैं । यह विभाजन मैंने नहीं किया है । इस तरह दोनों जगह लिखते-लिखते जो अभ्यास बना, उसमें अब एक तरह की सहजता उग आई है ।

यहाँ लिखते हुए कुछ देर पीछे लौटता भी हूँ । अपनी ऊपर लिखी पंक्तियों से गुज़र कर देखता हूँ । डायरी पर ऐसा नहीं करता । वहाँ तभी लिखने बैठता हूँ, जब कई सारी बातें पहले से घूम रही होती हैं और उन्हें लिखे बिना अब नहीं रहा जाएगा । यह भावातिरेक यहाँ भी है । यहाँ वह शैली या भाषा नहीं है । इसका अपना तंत्र है । उसका अपना । यह दोनों बचे रहेंगे या एक वक़्त ऐसा भी आएगा, जब दोनों में सिर्फ एक बारीक सी रेखा होगी और वह दोनों अपना अतिक्रमण कर रहे होंगे ? ऐसा सोचने वालों के लिए सिर्फ यही बात कही जा सकती है कि यह अभी भी होता है लेकिन उसकी आवृति एक दृश्य परिवर्तन या किसी स्थिति में रूढ़ नहीं हुई है । लेकिन इतना तय है, यह दोनों के विकासक्रम में एक महत्वपूर्ण अवस्था होगी । हो सकता है निर्णायक भी । मुझे नहीं पता, मेरी भाषा इसे समझा भी पा रही है, पर अभी इसे इसी तरह समझा जा सकता है ।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वक़्त की ओट में कुछ देर रुक कर

मुतमइन वो ऐसे हैं, जैसे हुआ कुछ भी नहीं

खिड़की का छज्जा

जब मैं चुप हूँ

टूटने से पहले

पानी जैसे जानना

मिलान करना