टॉयलेट: एक प्रेमकथा

यह फिल्म हमें किस तरह गढ़ रही है, यह सबसे पहले देखने वाली बात है। एक लड़का, जिसे अधेड़ कहना उचित होगा, उसकी शादी अभी तक नहीं हुई है। वह किस तरह प्रेम को अपने अंदर पाता है? कैसे प्रेम किया जा सकता है? उसके प्रेम को यह फिल्म 'प्रेमकथा' कहती है। यह कैसा प्यार है, जिसमें लड़का लड़की का पीछा करता है। साइकिल, मोटर साइकिल, बस, ट्रेन, टेम्पो, यातायात के सभी उपलब्ध साधनों से लड़की का पीछा ही नहीं करता, उसकी मर्ज़ी के बिना उसकी तस्वीरें उतारता है। उस तस्वीर से अपनी साइकिल एजेंसी का विज्ञापन बनवाता है। लड़की इस विज्ञापन को कस्बे में जगह-जगह देखती है और एजेंसी में जाकर अपना विरोध दर्ज़ कराती है। इस क्षण तक प्रेम का अंकुर उस लड़की में कहीं अंकुरित होता नहीं दिखता।

वह कब नायक पर रीझती है? जब उसे एहसास होता है, वह अधेड़ अब उसका पीछा नहीं कर रहा है। उसे अपने अंदर एक अजीब तरह का खालीपन महसूस होता है। जिसे हम दर्शक, जिसमें अधिसंख्यक पुरुष होंगे, वह किसी प्रेमकथा का आधार मान लें, तो क्या गलत है? हम सब एक पीछा करने वाले लड़के के लिए सहानुभूति से भर गयी लड़की को अपने सामने, बेचैन रातों में नींद न आने के कारण करवटें लेते हुए देख रहे हैं।

हम उस क्षण, एक पीछा करने वाले लड़के में तब्दील हो जाते हैं, जो किसी लड़की से प्यार करता है। जबरदस्ती का प्यार। जिसमें उस लड़की की भागीदारी, इच्छा, भावुकता के लिए कोई स्थान नहीं है। ख़ैर, पुरुष इसी तरह की छेड़छाड़ को प्यार का आधार मानते रहे हैं। यह फिल्म इसी को पुष्ट और वैधता प्रदान करती है। पहले पीछा करो, पीछा करते रहने से अक्सर लड़कियाँ मान जाती हैं और उनमें लड़कों के प्रति प्यार उत्पन्न होने की संभावना बनी रहती है। ऐसी संभावना जहाँ-जहाँ है, वहाँ वहाँ छेड़छाड़ के मामले कहीं दर्ज़ नहीं होते। 'तेरे नाम' से लेकर 'वांटेड' और उसके पहले शम्मी कपूर की कई सारी फिल्मों का अपना पुरुषवादी 'पीछा करो, प्यार हो जाएगा' का समृद्ध इतिहास बोध काम कर रहा होता है।

जब फिल्म इस तरह शुरू हुई, तब उसे कहीं आगे जाना नहीं था। वह विद्या बालान के 'निर्मल भारत अभियान' के लिए बनाए उन तीन विज्ञापनों के इर्द गिर्द घूमती रही। जहाँ सोच, वहाँ शौचालय। शौचालय की अनिवार्यता सिर्फ़ स्त्री के लिए है क्योंकि वह घर के बाहर, किसी गली में उजाले के वक़्त अपने कपड़े उघाड़ कर पुरुषों की तरह उन जगहों का इस्तेमाल नहीं कर सकती। अगर वह ऐसा कर पाती, तब यह फिल्म हमें कुछ भी नहीं दे पाती। उसने हमें बताया, स्त्री सिर्फ़ देह है। उसे उसी दायरे में बाँधे रखने के लिए शौचालय बनाए जाने चाहिए। सारा स्वच्छता अभियान इसी टेक के सहारे चल रहा है, हमें ऐसा अंदेशा होने लगता है। यह भी लगने लगता है कि इसे मनोरंजन के लिए नहीं, उन पुराने ढाँचे को बनाए रखने के गढ़ा गया है।

अक्षय कुमार एक जगह कहते भी हैं, अगर बीवी को अपने साथ रखना चाहते हो, तब उसके लिए सबसे ज़रूरी है, घर में शौचालय का होना। घर में शौचालय होने और उसके उपयोग से वह लड़के जो पहले ही मैदानों में छिपे रहते हैं, उनकी छेड़छाड़ से वह महिलाएं बच जाएंगी, उनका बलात्कार घर में पुरुष के अलावे कोई नहीं कर पाएगा। यह एक औसत से भी कम दर्जे की फिल्म हमें बताती है, जिसके बारे में बताया जा रहा है कि वह खूब पैसा कमा रही है। ऊपर से जो लोग इसे सिनेमाघरों में देख रहे हैं उनकी संवेदनशीलता को हम वहाँ माप सकते हैं। किन दृश्यों ओर सब हँस रहे हैं? कहाँ नहीं हँसा जाना था, वह कौन हैं, जो उन दृश्यों में डूब गए हैं? यह भी एक छोटे से शोध का विषय हो सकता है कि उन स्वरों में स्त्रियों का कितना अनुपात रहा होगा। शायद यह स्त्रियॉं से कुछ ज़्यादा की माँग है, फ़िर भी उन्हें इन पुरुष स्वरों से अलग अपनी बात कहनी होगी।

मैं ताजमहल से तुलना करने वाली बात पर नहीं आना चाहता। उन पानी की पाइपों, टंकी, कामोड के विज्ञापनों को अपने अंदर समेटे हुए फिल्म के उन दृश्यों पर भी कुछ नहीं कहना चाहता। न ही प्रशासन के इतने पारदर्शी दिखाये जाने वाली बात पर आना चाहता हूँ। मुझे बस आखिर में बस एक ही बात कहनी है, कि मुख्यमंत्री को यह फिल्म जितना भी ईमानदार दिखाने की कोशिश करती है, उसकी छवि बनाते हुई भी वह उनके अमानवीय व्यवहार को छिपा नहीं पाती, जो बड़ी-सी गाँधी तस्वीर की छाया में अपनी आदमक़द कुर्सी पर बैठते हैं। उनका बैठना दरअसल धँस जाना है।

वह कहते हैं, शौचालय न होने की वजह से हो रहा पति पत्नी (नायक-नायिका) का तलाक रोकना होगा, इसके लिए तत्काल प्रभाव से उनके गाँव में सामूहिक शौचालय बन जाना चाहिए। इस संदर्भ में जिन संबन्धित दफ़्तरों से वह फ़ाइल गुज़रेगी, वह उन सब कार्यालयों के शौचालयों पर ताला लगाने का आदेश दे देते हैं। जब तक फ़ाइल पर दस्तखत नहीं होंगे, ताले नहीं खुलेंगे। यह उनके काम करने का तरीका है। जो उन्हें आता है। यह एक अधिनायक का तरीका है। सिर्फ़ गाँधी की तस्वीर लगाने से कुछ नहीं होता। उन मूल्यों को ग्रहण भी करना होगा, जो गाँधी को गाँधी बनाते हैं।

किसी तरह यह भौंडी फिल्म खत्म होती है। जिसे पूरी संभावना है, आगामी भविष्य में कोई न कोई राष्ट्रीय पुरस्कार ज़रूर दे दिया जाएगा। लेकिन फिल्म का भौंडापन इतना सब लिखने पर खत्म नहीं होता। आप जब इसे देखेंगे, तब ख़ुद जान जाएँगे। क्या वाहियात फिल्म है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बाबा

खिड़की का छज्जा

बेतरतीब

काश! छिपकली

उदास शाम का लड़का

हिंदी छापेखाने की दुनिया

आबू रोड, 2007