क्षण

मैं कई दिनों से लिखने के लिए एक ऐसे क्षण की प्रतीक्षा में हूँ, जब यह लिखे जाने वाली घटना मेरे अंदर उसी तरह दोबारा घटित हो जैसे वह उस रात हुई थी। बिलकुल उन्हीं भावों से एक बार फ़िर भर जाना चाहता हूँ। लेकिन कोशिश करने के बाद भी किसी युक्ति से उन पलों को अपने अंदर दोबारा घटित नहीं कर पाया हूँ। यह एक दुखद घटना की पुनरावृत्ति नहीं है। यह किसी अनचाहे खटके से कहीं पहले उसे दर्ज़ कर लेने की मेरी छोटी सी इच्छा है। यह घटना किसी भी तरह से कुछ भी बदल देने का कोई दावा नहीं कर रही है जबकि इधर सब कोई न कोई दावा कर लेना चाहते हैं। यह इस भाव से मुक्त है। सच में, यह बहुत छोटी-सी घटना को लिख लेना है। जिसमें आगे कुछ भी घटित होता हुआ नहीं दिखाई देगा। यह न दिख पाना हमारी तंगनज़री होगी, इसलिए पहले ही सावधान किए देता हूँ।

माँ और मैं बहराइच से अभी चले नहीं हैं पर लखनऊ में हमारा इंतज़ार हो रहा है। बस को चलने में अभी थोड़ा वक़्त है। पूछने पर किसी ने कहा, चार पचीस पर चलेगी। पर वह वहाँ सोच रहे होंगे, बस चल पड़ी है। अभी थोड़ी में जरवल रोड पार कर जाएँगे और घाघरा घाट आ जाएगा। इस तरह कुल तीन घंटे बाद यह बस रामनगर, बाराबंकी, चिनहट होते हुए पॉलीटैक्नीक चौराहा पहुँच जाएगी। वहाँ कितनी देर वह रुकेगी, कितनी बात हो पाएगी यह ज़रूरी सवाल नहीं है।

ज़रूरी बात सिर्फ़ इतनी है कि सुबह चाचा ने अपने बड़े भाई के साथ राममनोहर लोहिया अस्पताल में डॉक्टर के सामने कैंसर के ऑपरेशन के लिए मना कर दिया है। हमें बस उनकी सारी रीपोटों को अपने साथ दिल्ली लेते आना है। पापा उन्हें दिल्ली में डॉक्टर को दिखाएंगे।

कितना यांत्रिक महसूस करते हुए भी मेरी आँखें धुँधला रही हैं। कुछ नज़र नहीं आ रहा है। बस हाथ चल रहे हैं। आँसू कहीं कोनों में छिपे छलक जाने को हैं। दोनों भाई कितनी ही देर उस चौराहे पर खड़े रहे, इसका कोई हिसाब मेरे पास नहीं है। मुझे बस इतना पता है, मैंने पापा को गाड़ी नंबर, आज़ाद नगर डिपो और यह बताया था कि उसमें ड्राइवर की तरफ लगी हेड लाइट के ऊपर कानपुर लिखा होगा। इन तीन पहचानों को वह दोनों भाई कितनी ही गाड़ियों से मिलान करते रहे होंगे। क्या बात कर रहे होंगे दोनों आपस में? क्या वह दोनों भाई मेरी तरह अपने बचपन की स्मृतियों में डूब रहे होंगे? उन्हें भी कोई बात याद आकर गले में अरझ गयी होगी? कुछ नहीं कह सकता। बस इतना सोचे जा रहा था, अब जबकि अँधेरा हो गया है, इस अँधेरे में वह इस बस को पहचान भी पाएंगे? उन्हें याद रहेगा, गाड़ी का नंबर? आज़ाद नगर डिपो की रोडवेज़ बस?

मैं पुल आते ही सीट से खड़ा हो गया। मम्मी भी सामने सड़क पर देखने लगीं। कहीं दोनों दिख जाएँ? वह मुझे नहीं दिखे। वह मम्मी को दिखे। मुझे सिर्फ़ दोनों भाइयों के पयजामे हवा में उड़ते हुए लगते रहे। दोनों भाई पुल के पास खड़े थे। जैसे ही बस रुकी मैं झट से किसी और सवारी के उतरने से पहले गाड़ी से उतर गया और जहाँ ड्राइवर ने बस रोकी, उससे बिलकुल उल्टी दिशा की तरफ भागा। मैं सारे रास्ते जिस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था, उसे इस तरह घटना था। अगर दोनों तरफ से हम एक दूसरे पर नज़र नहीं बनाए हुए होते तब शायद ही वह झोला मुझे दे पाते।

गाड़ी इतनी देर तक रुकी रही कि दोनों भाई, जिसमें एक मम्मी के जेठ लगे और दूसरे देवर, दोनों बस के दरवाजे के पास आ गए। मैंने बताते हुए कहा, वहाँ बैठी हैं मम्मी। चाचा ने मम्मी को देखकर ऐसे सिर हिलाया, जैसे आखिरी बार मिलते हुए कोई अलविदा लेता हो। मम्मी घुटनों में सूजन और पैरों में दर्द के बावजूद जितना खड़ी हो सकीं, उन्होंने उतनी कोशिश कर दोनों भाइयों को एक साथ देखते हुए बिन कुछ बोले अपना हाथ हिलाया। चाचा भी जवाब में अपना हाथ हिलाते हैं। इतने दिनों बाद भी उनका इस तरह अपना हाथ हिलना कभी-कभी मेरी आँखों के बिलकुल सामने उसी तरह दिख जाता है। उन्होंने जो सौ रुपये का नोट दिया है, उसकी तह को उसी तरह रखे हुए हूँ। कभी-कभी किताब के बीच में रखे उस नोट को उनकी अन्तिम स्मृति की तरह देखते हुए वापस पन्नों के बीच रख देता हूँ और सोचने लगता हूँ, यह क्षण कभी किसी की स्मृति में ऐसे घटित न हो।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बाबा

खिड़की का छज्जा

उदास शाम का लड़का

बेतरतीब

हिंदी छापेखाने की दुनिया

आबू रोड, 2007

इकहरापन