गाँधी के साथ एक दिन

कोई भी व्यक्ति अपने देश काल से बाहर नहीं हो सकता, ऐसा नहीं है. हम कल्पना में अक्सर ऐसा करते हैं. सपनों में हमारे साथ यही होता है. हम उस वक़्त जहाँ खड़े थे, वह महात्मा गाँधी की समाधी के बिलकुल पास मुझे मिला. उसने गुजराती लहजे में मुझसे पूछा, 'यह क्या है’? यह पहला व्यक्ति था, जो मेरे सामने इन ऊपर कही सीमाओं से परे चला गया. उसने अपनी महिला साथी को पुकारा और कहा, 'रास्ता नीचे से है, ऊपर से नहीं’. उनके लिए यह दिल्ली आने पर घूमने की एक जगह है. शायद हम जगहों को पहली बार इसी तरह अपने अन्दर रचते हैं. यह 'घोषित' ऐतिहासिक स्थल उनके मन में कब 'स्थापित' होगा, कहा नहीं जा सकता? 

गाँधी नोट पर हैं, जो उनकी जेबों बटुओं में होंगे. जो उम्मीद करते हैं, उसके साथ विचार भी पहुँच रहे होंगे, वह अभी सोचना भी शुरू नहीं करना चाहते. उस पर ऐसी कोई तथ्यात्मक बात नहीं है, जो बताती हो उनकी मृत्यु कैसे हुई थी? उसे मृत्यु नहीं हत्या ही कहा जाना चाहिए. जैसे यह सूचना रिज़र्व बैंक के किसी नोट पर नहीं है, राजघाट भी नोट बन जाता है. यहाँ ऐसा कोई सूचनात्मक बोर्ड नहीं है. यह स्थल अपने आप उम्मीद करता है कि गोडसे को सब जानते होंगे. उसने गाँधी को गोलियों से भून दिया था. जब यह तथ्य ही अनुपस्थित है, तब हत्या की वजहें सबको पहले से पता होंगी, इसकी कल्पना करना व्यर्थ है. यह तथ्य गाँधी के नाम पर बने 'राष्ट्रीय संग्राहलय' में और कई सारी ऐतिहासिक तिथियों के साथ वहाँ मौजूद है. 

हम सड़क पार बायीं तरफ़ बनी इस इमारत में दाखिल हुए. नीचे कुछ बच्चे दिखे. उनके गले में परिचय पत्र लटक रहा था. एक नोट पैड भी वहीं रखा हुआ था. पहले लगा, वह अपने किसी अध्यापक के साथ वहाँ किसी प्रोजेक्ट पर आये होंगे. भाषा और पोशाक बता रही थी, किसी निजी विद्यालय के छात्र-छात्राएँ हैं. वह सब इन गर्मियों की छुट्टियों में किसी गैर सरकारी संगठन के साथ यहाँ निःशुल्क गाइड का काम कर रहे हैं. जो भी चाहे वह इनकी सेवाएँ ले सकता है. वह इस संग्राहलय में बनी हुई वीथियों का क्रमवार ब्योरा बताते जायेंगे. सबके कक्ष पहले से विभाजित हैं. जिसे जहाँ नियुक्त किया गया है, वह वहीं अपने साथी के साथ खड़ा है. मेरी रूचि बस दो सवालों को लेकर थी. पहला सवाल, वह दलितों को लेकर गाँधी के विचारों को किस तरह देखते हैं और दूसरा, उनकी समझ में 'नयी तालीम योजना' क्या है? पहली इच्छा इच्छा ही रह गयी. उस छात्रा ने अस्पृश्यता और ग्राम स्वराज्य की बात में उस सवाल को समेट दिया. दूसरी इच्छा प्रकारांतर से पहली मंजिल पर पूरी हो गयी. 

वहां एक लड़का एक तस्वीर के साथ खड़ा उसे समझने की कोशिश कर रहा था. वह इण्डिया गेट के पीछे जहाँ कभी जॉर्ज पंचम की प्रतिमा लगी थी, उस जगह को दिखा रही थी. असंख्य लोग गाँधी की अंतिम यात्रा में शामिल हुई हैं. पेड़ सड़क सब जगहें भरी हुई हैं. यह कौन सी जगह है(?) उनसे वहां मौजूद एक व्यस्क व्यक्ति से पूछा. उसने तस्वीर के नीचे पढ़ा और थोड़ा अपने सामान्य ज्ञान से बताया कि यह जगह 'बिरला भवन' के बहुत पास है और यह सब लोग महात्मा गाँधी को श्रद्धांजली देने के लिए वहां उपस्थित हुए हैं. उसके जाते ही वह उन पंक्तियों को उसी लहजे में दोहराने लगा. शिक्षा का विमर्श इसे 'रटना' कहता है. गाँधी की 'नयी तालीम' में इस 'रटने' के लिए कोई जगह नहीं है. बात यह नहीं है कि वह बच्चे 'नयी तालीम' के बारे में सूचनाएं रटकर किसी आगंतुक को देंगे. वह तो खुद इस जगह के लिए कुछ दिन के अतिथि हैं. बात इससे आगे जाती है. 

जैसे ही हम इस वीथी से बाहर निकले वही दरवाज़े पर एक स्त्री संग्राहलय की वीथियों के परिचायात्मक पम्पलेट लेकर कुर्सी मेज़ के साथ बैठी हुई थीं. मैंने एक-एक कर हिंदी में छपे पम्पलेट उठा लिए. उन्होंने उठाते हुए कुछ नहीं कहा. पर जब मैं चलने लगा, तब वह बोलीं, 'एक रुपये का एक है’. मैंने बिन कुछ कहे, जहाँ से जो कागज़ उठाया था, मिलान करके रख दिया. पीछे से वह कुछ बोलने लगी. उसका लब्बोलुआब यही था, 'हम भारतीय मुफ़्त की चीजों के प्रति आकर्षित होते हैं, जैसे ही उसकी कीमत पता चलती है, हम उसे छोड़ देते हैं’. मेरे लिए इन बातों का कोई महत्त्व नहीं था. मैं बस सोच रहा था, गाँधी के सिद्धांतों में एक शायद धैर्य भी रहा होगा और वाणी का नियंत्रण भी. फिर यह उस स्त्री की कही बातों में क्यों नहीं दिख पाया.

{इसका संशोधित रूप 22 अगस्त,2017 को जनसत्ता, 'दुनिया मेरे आगे' कॉलम में 'तालीम का रास्ता' नाम से प्रकाशित हुआ है। पीडीएफ़ में पढ़ने के लिए यहाँ और वर्ड में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें। }

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