अगर मैं हीरो होता..

मैं कभी किसी का हीरो नहीं बनना चाहता. इसे इस तरह लिखा जाना चाहिए कि मैं कभी किसी का हीरो नहीं बन सका. इस दूसरी पंक्ति के इर्दगिर्द ही ख़ुद को बुनने वाला दबाव इसे लिखा ले जाने वाला नहीं है. मैंने अभी तक किसी के लिए कुछ नहीं किया है. अगर किया है, तब उन सबको बारी-बारी मुझसे किसी तरह संपर्क करना चाहिए. मैं एक औसत से भी कम दर्जे की ज़िन्दगी जीता हुआ उसमें आगे बढ़ रहा हूँ. मेरी हैसियत एक पेड़ की तरह भी नहीं है. पेड़ कम से कम साल में साथ गुज़रते हुए मौसम के अनुसार अपना व्यवहार करता है. मैंने ऐसा कभी नहीं किया. यह आज मैं ज्यादा क्यों आ रह है? इसकी वजह है. लेकिन होता यह है, सारी वजहें बताई नहीं जाती हैं. मैं भी एक असामान्य सी सपनीली आँखों में डूबा हुआ इस दुनिया से बेखबर रहता हुआ इस दुनिया में रहना चाहता हूँ. यह कैसे होगा? नहीं पता. 

मैं चाहता हूँ, कुछ ऐसा कर दूँ कि मेरी मम्मी के घुटने एकदम ठीक हो जाएँ और वह हमारे साथ ख़ुद सीढ़ियाँ उतरते हुए, हमें नगर निगम के नल से पानी भरता हुआ देखें. कभी मन होने पर हम भी उनके साथ दो-दो बार बाहुबली देखने चले जाते. शीला सिनेमा के बंद होने से पहले न जाने कितनी फ़िल्में वहाँ देख लेते.

अगर इसके लिए मुझे अतीत के उन घंटों बर्तन माँजने वाले क्षणों को मम्मी की स्मृतियों से मिटाने और उस दौरान हो रहे दर्द को गायब करने की कोई युक्ति मिल जाती, तब सबसे पहले मैं यही करता. उन्हें खैंचा भर बर्तन माँजने नहीं देता. जो खाता जाता, वही अपने बर्तन धोता जाता. अगर मैं कर पाता, तब बचपन में उनकी जेठानी की दादी को चुगली करते हुए हर बात को मम्मी के सामने कहता हुआ, उनकी गोद में बैठे रहकर खाना खाते हुए ढलती रात को तारें देख रहा होता. 

अगर मैं यह कर पाउँगा, तब अपने उन अकेले छह घंटों को भी अपनी ज़िन्दगी से हमेशा के लिए गायब कर दूँगा, जहाँ तुम अन्दर थी और मैं बाहर बेसुध खड़ा तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था. मैं उस पहले महीने से सीधे नवे महीने में जाकर रुकता. भले इसके लिए मुझे उस साल दुनिया भर के कारखानों में छप गए कैलेंडरों में से उन आठ महीनों को निकाल कर जलाना पड़ता. अगर यह नहीं कर पाता, इसमें कोई दिक्कत आती, और मेरा गणित थोड़ा भी ठीक होता, तब दो सौ पैंसठ साल पहले दोहराए गए इतिहास को फिर दोहराकर कुछ ऐसा करता कि उस साल जनवरी के बाद सीधे अगस्त ख़त्म हो रहा होता. सब एकदम चकित रह जाते, यह कैसे संभव है? पर यह होता. मैं ऐसा करता और ऐसा हो जाता.

अगर मैं इस ज़िन्दगी में जीते हुए, इस ज़िन्दगी पर ज़रा सा भी अख्तियार रखता, तब सन् छियानवे की वह रात कभी नहीं आती, जब दादी के सीने में दर्द हुआ था. कोई नहीं समझ पाया, उन्हें क्या हो गया है. उनके उस दर्द से वह थोड़ी देर में मर गयीं. तब मैं छठी कक्षा में ही था, बहुत छोटा था. तो क्या हुआ? हीरो होता, तब ऐसे नहीं होने देता. मैं कितना याद करूँ? पिछले साल चाची के बाबा को घर से निकालने से पहले उन्हें अपने साथ दिल्ली ले आता. सबसे छोटे बाबा के पैर का पलस्तर ख़ुद घर में नहीं काटता. हीरो के साथ डॉक्टर बनना इमेज के साथ सूट नहीं करता इसलिए बहराइच जाकर डॉक्टर को दिखाता.

अगर हीरो होता, तब अपने जन्म से चालीस साल पहले ही क्लाइड इथरली को जापान पर परमाणु बम गिराने नहीं देता. उसे कुछ भी करके ऐसा न करने के लिए राज़ी कर लेता. मैं हर उस घटना को घटित होने से रोक लेता. जहाँ कोई मर रहा होता. रोक लेता हिटलर को आत्महत्या करने से. उसे भी सुनता. वह क्यों ऐसा होता गया. अगर तब सच में अपने जन्म से पहले हीरो होता, तब क्या इससे पहले जाकर यहूदियों को नहीं बचा पाता? 'शिंडलर लिस्ट' के नाम से कई साल पहले एक फिल्म मुझपर बनायी गयी होती. तब मैं भी कहीं इतिहास में दर्ज़ होता. ख़ुद यहाँ मेज़ पर बैठकर इतिहास नहीं लिख रहा होता.

अगर कर पाता, तब वह सब कुछ कर लेता जो अभी तक सपने में सोचता रहा हूँ. जैसे पापा अपने सपनों में चाहते हैं, उनके सपनों में दाख़िल होकर, उनकी मर्ज़ी से उनके सपनों को सच कर देता. जैसा मम्मी चाहती हैं, वैसा कबका बन जाता. जैसा तुम चाहती हो, वैसा बनने में थोड़ा वक़्त लगता क्योंकि हीरो होने के बावजूद मेरी भी सबकी इच्छाएं पूरी करने की क्षमता होती. पहले पापा के सपने पूरे करता, फिर मम्मी की फ़ेहरिस्त देखता, तब जाकर तुम्हारा नंबर आता. पर क्या करूँ? बस एक साधारण सा, तुनकमिजाज़ लड़का हूँ, जिसे पता है, वह कुछ और हो या न हो, वह हीरो तो कतई नहीं है. हमें आज तक यही बताया गया है, हीरो सबकुछ कर लेता है. एक मैं हूँ, जो कुछ नहीं कर पाया. जो किया, वह हीरो की तरह नहीं किया.

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

बाबा

खिड़की का छज्जा

बेतरतीब

मोहन राकेश की डायरी

काश! छिपकली

उदास शाम का लड़का

हिंदी छापेखाने की दुनिया