पीछे जाते धागे
यह बड़े दिनों से मेरे अन्दर उमड़ती-घुमड़ती हुई कई सारी बातों के सिरों को पकड़ने की कोशिश है. इसे मैं अपने में वापस लौटने की प्रक्रिया के रूप में देखना चाहता हूँ, पर पता नहीं कितना इसके लिख लेने के बाद कह पाऊंगा? बात सिर्फ एक तरह के लिखने की नहीं है. यह उससे कुछ ज्यादा की मांग करने जैसा है. जैसे मैं करनी चापरकरन लिख रहा था और उन दिनों की अपनी बनावट बुनावट की तरफ देखता हूँ, तब लगता है, उस दौर में जो छटपटाहट अपने अन्दर महसूस करता था, उसे खुद ही ख़त्म कर दिया. यह उन लिखी हुई बातों से कहीं न पहुँच पाने की खीज रही होगी. इन दिनों का दुःख उन पंक्तियों में झलकता हुआ, मेरे बगल दिख जाता होगा. वह अन्दर की बेचैनी पता नहीं किस कदर मुझे गढ़ रही थी. मैं डायरी पर. पैन से. यहाँ टाइप करता हुआ. मन के अन्दर अनगिनत अन लिखे पन्नों को समेटे हुए चल रहा था. जितना सर से उतारता उतना ही उसका वजन बढ़ जाता. लगता, अभी इस जेब से कुछ सामान बाहर रखा है, तो पीछे वाली जेब में कोई पौधा उग आया है. जहाँ आपको लग रहा था, जेब की सीवन फट गयी थी, वहीं कई सारी जड़ें इकठ्ठा हो गयी हैं. जो कहीं जाती नहीं हैं. वह सब अनायास आप तक आ गयी ह