न लिख पाना..

न लिख पाना ख़ुद में खो जाना है. यह ढूंढें से भी नहीं मिलने वाला. कहीं कुछ खोया हो तो हम उसे बाहर पा सकते हैं. जो अन्दर ही है, उसे अंदर से ही निकलना होगा. कोई दूसरा उसे छू भी नहीं पायेगा. वह कहीं कमरे में बैठा होगा. परेशान सा. कुछ भी न करने कहने के मन के साथ, उदास हो जाती छिपकली के सहारे, दिवार पर टकटकी लगाये उसकी आँखें थक गयी होंगी. गर्दन एक तरफ़ झुके-झुके दूसरी तरफ़ देखने को होगी, पर कहीं यह भी कहीं खो न जाये. इस डर से वह डर गया होगा और एक ही धागे से वह सब कहीं बांध आया होगा. सपने, खीज, एक टूटा नाख़ून, दो जोड़ी चप्पल.

अब उसकी जेबों में कुछ भी नहीं है. एक घर की चाभी थी, उसमें एक दराज़ था, जहाँ स्याही वाले दो कलम थे. अब न कागज़ है, न उसके हाथों की छुअन है, न कोई कागज़ का कतरा बचा. सब भीग गया. उसके ख़याल भी बारिश की तरह देर तक खिड़की के बाहर बरसते रहे. वह कुछ कहता इससे पहले उसकी बहन छाते पर चार बूँदें ले आई. भईया के मन की बात कहाँ मिलती इतनी आसानी से. वह छिपाकर रात को देखेगी इन्हें.

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