दिन हमारा छब्बीस जनवरी

मन में, मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ से शुरू हुई बात यहाँ तक पहुँच गयी। अब बैठा हूँ तो मन कहीं अटक गया है। इस साल छब्बीस जनवरी को बीते कोई छह महीने नहीं, बस यही गिनती के लगभग दो दिन हो चुके हैं। और जैसे के इस तेज़ रफ़्तार दुनिया की आदत है, इस दुनिया को मेरी कही बातें थोड़ी सुस्त लग सकती हैं। मेरे सोचने समझने की रफ़्तार थोड़ी घोंघे की तरह है। कछुआ पिछड़ने से डरता नहीं है। चलता जाता है। हम सबको असल में कछुआ हो जाना चाहिए। बहरहाल। मैं तो बस इतना सोच रहा था, इस दिन को किस तरह से मनाया जाना चाहिए। तब ख़याल आया, मनाने के लिए मेरे पास भारत सरकार जितना पैसा नहीं है, जिससे इस उत्सव को वैभव में तब्दील कर पाना आसान होता। मेरी खिड़की से राजपथ जैसी अकड़ सूचक सड़क क्या मेढ़ भी बाहर नहीं दिख रही।

फ़िर ऊपर वाली इन दोनों पंक्तियाँ को कोई परीक्षक नुमा पाठिका पढ़कर इसे सरासर नकल कहकर ख़ारिज करने के भाव से भर जाये, इससे पहले हमें सावधान हो जाना चाहिए। दिमाग न सोचने की हालत में हो, तब भी सोचना चाहिए। क्या हमारे पास इस दिन को बिताने का कोई मौलिक विचार नहीं है? क्या हम मानसिक रूप से इतने दिवालिया हो चुके हैं कि इस दिन को एक ढर्रे में तब्दील किए बिना दम नहीं लेने वाले?

दम निकल जाएगा पर सोचेंगे नहीं। मैं भी कुछ ख़ास नहीं सोच पा रहा। बस एक औपचारिकता सी बची है। उसी में यह चिट्ठी लगाए जा रहा हूँ। यह चितकबरे हो जाने के बाद की कहानी है कि अब कभी-कभी महसूस करता हूँ मुझे इस देश की क्या ज़रूरत। यह सरासर उपयोगितावादी दृष्टिकोण है। पर मेरा प्रस्थान बिन्दु है। इतना कहते ही मैं उस दक्षिणपंथी विचार को सिरे से खारिज कर देता हूँ जो इस भू भाग को एक नाम विशेष से पुकारते हैं और इसमें मातृ गुणों का समावेश करके एक स्त्री की भांति इसका उपभोग करना जानते हैं। चूंकि स्त्रियॉं को ही परंपरा एवं मूल्यों का वाहक मानने की रूढ़ि को परंपरा कहकर हम आज तक ढो रहे हैं इसलिए ऐसा कहकर एक तरफ़ मैं सामंती मध्ययुगीन कृतज्ञता के भाव से ख़ुद को एक झटके से हटा लेता हूँ। वहीं दूसरी तरफ़ ऐसा विचार 'आधुनिक' कहा जाने लगता है। यहाँ मैंने बड़ी चालाकी से दो विपरीत ध्रुव खड़े किए और उनकी आड़ में खड़ा होकर इस वैचारिक दृष्टि को ख़ुद पर लगाने लगा। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम इन ध्रुवों से अलग होकर कुछ समझ सकें?

ऐसा हो सकता है। इसके लिए बस हमें करना बस इतना होगा कि इन दोनों को आपस में विपरितार्थी मूल्यों से मुक्त करना होगा, जिसके लिए हमें अपनी मानसिक स्थापनाओं में लगातार काम करने की ज़रूरत महसूस होगी। यह इन मूल्यों को नैरंतर्य में देखने के बाद कुछ हद तक हो सकता है। पर दिक्कत यहाँ भी है। जैसे ही कहता हूँ कि यह धरती मेरी मातृभूमि है तब इसके साथ जो जो व्यवहार हम सब अपनी माताओं के साथ करते हैं, उसी अनुपात में वह व्यवहार सूची यहाँ लागू हो जाती है। चूंकि हमने अपने परिवारों में एक उम्र के बाद अपने परिजनों के साथ चेतन अवचेतन में एक ख़ास तरह की उपेक्षा का भाव घर कर जाता है हम इस भू भाग को भारतमाता कहने के बाद भी कुछ ख़ास तरह से तब्दील नहीं होते। लेकिन यह सत्य हम स्वीकार नहीं करना चाहते। इसे मानते ही कई और ख़तरे हमारे सामने उठने लगते हैं। जिनसे उठते सवालों के जवाब मुश्किल हैं।

जवाब न देने पड़ें इसी लिए हमने दुनिया की इतनी बड़ी सेना खड़ी की है। वह हमारी सीमाओं की प्रहरी कही जाती है। उसके जवान अपने प्राणों का बलिदान एक 'मूल्य' की तरह देते हैं। यह मूल्य 'देशभक्ति' भी कहा जाता है। इस तरह हम इन सुरक्षित सीमाओं के भीतर विकास की असमाप्य योजनाओं पर अपना ध्यान केन्द्रित कर पाते हैं। यह ऐसा विकास है, जिसमें संसाधनों की लूट सामान्य बात है। सिर्फ़ एक विचारधारा विशेष से प्रेरणा लेते प्रतिरोध को 'वामपंथी उग्रवाद' कहने से हम समझने वाले नहीं हैं। उन बड़े-बड़े भीमकाय बांधों के लिए उजाड़ी जाने वाली सभ्यताएं इसी नाम पर मिट रही हैं। परमाणु संयंत्र लगाये जा रहे हैं। विकास की मर्सडिस और बीएमडबल्यू गाडियाँसरपट दौड़ सकें इसके लिए सोलह-सोलह लेन के खेत निगलने वाले 'एक्सप्रेस वे' बनाए जा रहे हैं। नदियाँ शहरों का कचरा ढोने वाली नालियों में तब्दील हो चुकी हैं। हवा साँस लेने लायक नहीं रही। चिड़िया के अंडे पहले ही फूट रहे हैं।

आप अभी इसी पहेली में उलझे हुए हैं कि हम ऐसा क्यों कर पा रहे हैं? तब तो आप सचमुच में बड़े मासूम हैं। आपकी पहुँच भले इंटरनेट जैसे माध्यम तक हो गयी है पर आपके पास सोचने लायक दिमाग अभी भी नहीं है।

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