अधूरे अनलिखे ख़त

मैं हफ़्ते भर पहले आज के दिन एक ख़त लिखने बैठा था। ख़ुद को। नहीं लिख पाया। शायद ऐसा हम सबके साथ होता होगा कभी-कभी। तब बहुत सी बातें मेरे मन में चल रही थीं। जैसे दिल्ली यूनिवर्सिटी में चल रहा था, रामजन्मभूमि वालासेमिनार । अगले दिन, इतवार सुबह-सुबह जल्दी बुलंदशहर जाने की बात। हम अभी दोपहर के बाद कमरे में आए ही थे कि पता नहीं क्या सूझा अनुराग से लाया फ़ोल्डर देखने लगा।पता नहीं उसमें ऐसा क्या था जो याद नहीं आ रहा. कहीं डायरी में लिख लिया होगा. या कहीं नहीं लिखा होगा. बस ऐसे ही ख़ुद से बात करने का मन किया होगा. मन का करते रहना ज़रूरी है. हम कितनी रातें थक कर सोते रहेंगे. कभी कुछ भी नहीं सोचेंगे. इस अनलिखे ख़त में यही सब बातें होने वाली थी शायद. कब से नयी डायरी इंतज़ार कर रही है. कब उसमें पहली बात लिखी जायेगी. हम कभी इन छोटे छोटे दायरों और उलझनों से निकल भी पायेंगे. कैसे हम इनमें फँसकर ख़ुद मकड़ी हुए जाते हैं. हमें अपना बनाया जाला नज़र ही नहीं आता. ऐसे कितने ही ख़त अधूरे रह गए होंगे, जिनका कोई हिसाब नहीं है. कहीं कोई अधूरी बातों को जमा करके नहीं रखता. सब किसी मुकाम की तरह किसी मुकम्मल बात को ढूंढ रहे होते हैं. हम जो कम कहने वाले लोग हैं, वह कहाँ जाएँ. पता नहीं.

कभी कोई मेरी लिखी डायरियों तक पहुँच गया, तब उसे लगेगा अधूरापन भी किस तरह अपने आप को पूरा किये रहता है. इन ख्वाहिशों के बीच में हम कितनी ही बातें नहीं कह पाते उन्हें मैंने वहाँ ज़माना भर पहले लिख लिया है. यह अहंकार है एरोगेंस है. पर क्या करूँ. मैं ऐसा ही हूँ. इसके बाहर मेरी कोई पहचान नहीं है.

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