आज की बात

वह फ़ेसबुक जो मेरे एक-एक क्लिक को याद रखता है और समय-समय पर बताता चलता है, मैंने यहाँ अपने बीतते वक़्त में किस पल क्या-क्या किया(?) वही ‘फ़्री बेसिक्स’ वाला फ़ेसबुक, आज सबको मेरा जन्मदिन बताना भूल गया। इसकी शिकायत करने पर शायद वह मुझे कभी किसी मेल से सूचित करते हुए गर्व से भर जाएँ कि इस गलती के लिए एक ऑटोमेटिक सर्वर दोषी था, जिसे अब हमने ठिकाने लगा दिया है। आगे से आपकी फ्रेंड लिस्ट को हफ़्ताभर पहले से आपके जन्मदिन की नोटिफ़िकेशन देदे कर हैरान कर देंगे। 

इस टेक्निकल फ़ाल्ट की बात मुझे भी न पता चल पाती, अगर दोपहर आलोक का फ़ोन न आया होता। वही कहने लगा। ख़ैर, असल बात यह नहीं है। बात इससे भी कहीं आगे जा रही है। आज जनवरी नौ, साल का दूसरा शनिवार। आज दिल्ली विश्वविद्यालय में राम जन्मभूमि विषयक एक सेमिनार का आयोजन किया गया है। कल समरजीत के साथ आरटीएल से लौटते वक़्त हम भी कुछ देर आइसा के इस संबंध में विरोध प्रदर्शन के मौन समर्थन में कुछ देर आर्ट्स फ़ेकल्टी के गेट पर खड़े होकर उन्हें सुनने लगे। आज इसी के सामने वाले गेट पर पूरी बटालियन खड़ी हुई है. क्यों? पता नहीं. शायद जो इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में आये होंगे उन्हें सुरक्षा की ज़रुरत होगी. पर सवाल है, किससे उन्हें ख़तरा महसूस हो रहा है. इसी बात को हम कह रहे हैं. कभी खुलेआम. कभी छिप कर.

यहाँ इस बात का ज़िक्र इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि कोई तो है, जो हम पर नज़र रखे हुए हैं. इसी बीते दिसंबर में मैंने बार फेसबुक को टैग करके इतना कहा था, मुझे याद दिलाने की ज़रूरत नहीं है कि मेरे आस पास क्या हो रहा है. मैंने किसे कब क्या कहा. शायद नाराज़ हो गया बेचारा. यह भी एक तरह की सेंसरशिप है. कुछ ख़ास चीज़ों को लगातार हमारे न्यूज़ फीड में धकेलते रहना और बहुत सी बातों का उसकी नज़र में ग़ैर ज़रूरी बनते रहना. 

एक धागा इसके पहले ड्राफ़्ट बनने के समय से यहाँ रख छोड़ा था, उसे लिंक की तरह लगा रहा हूँ. और ग़ैर ज़रूरी बात की तरह बताता चलूँ कि उस सुबह जबकि यह तस्वीरें खींची जा रही थी, हम ‘राम के नाम’ पर देख रहे थे.

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वक़्त की ओट में कुछ देर रुक कर

खिड़की का छज्जा

जब मैं चुप हूँ

लौटते हुए..

टूटने से पहले

मुतमइन वो ऐसे हैं, जैसे हुआ कुछ भी नहीं

पानी जैसे जानना